Skip to main content

Featured

कैसे होली वृंदावन की विधवाओं के जीवन में रंग लाती है

  गरीबी और परंपराओं में बंधी, वृंदावन शहर में हजारों हिंदू विधवाएँ संयमित जीवन जीती हैं। फिर भी, होली का त्यौहार उन्हें कुछ क्षणों के लिए रंग और खुशी का अनुभव कराता है, जो उनके कठिन जीवन से एक पल का पलायन प्रदान करता है। वृंदावन, जिसे भगवान श्री कृष्ण के बचपन से जोड़ा जाता है, लंबे समय से विधवा हिंदू महिलाओं के लिए एक शरण स्थल रहा है। हिंदू समाज में विधवापन अक्सर कलंकित माना जाता है, और विधवाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे संयमित जीवन जीएं और शुभ अवसरों में भाग न लें। उन्हें परिवार की आर्थिक स्थिति पर बोझ माना जाता है, जिसके कारण कई विधवाएँ वृंदावन जैसे पवित्र स्थलों पर आ जाती हैं, जहां वे राज्य, एनजीओ, मंदिरों और आश्रमों से दी जाने वाली दान राशि पर जीवित रहती हैं। हालांकि, होली के दौरान इन महिलाओं को एक अस्थायी रूप से परंपरा से मुक्त होने और उत्सव का आनंद लेने का अवसर मिलता है, जिससे उनके otherwise कठिन जीवन में रंग और खुशी का एक दुर्लभ पल आता है।

प्रेमानंद जी महाराज: गृहस्थ जीवन और संयास जीवन में से कौन श्रेष्ठ है, प्रेमानंद जी महाराज से जानें


Premanand Ji Maharaj watch video know how to do hymn during married life | गृहस्थ  जीवन में जी रहे व्यक्ति को कैसे करना चाहिए भजन, देखें प्रेमानंद जी महाराज  का ये वीडियो |

प्रेमानंद जी महाराज के अनमोल वचन आपके जीवन को नई दिशा दे सकते हैं। जीवन में सफलता पाने के लिए उनके विचार बहुत प्रेरणादायक हैं। प्रेमानंद जी महाराज एक महान संत और विचारक थे, जो जीवन का सच्चा अर्थ समझाने और बताने का कार्य करते थे। उनके अनमोल वचन जीवन को सुधारने और संतुलन बनाए रखने के मार्गदर्शक होते हैं।

प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार गृहस्थ और संयासी जीवन

प्रेमानंद जी महाराज ने कहा है कि जैसे हम अपने दोनों नेत्रों में से कौन श्रेष्ठ है, यह नहीं कह सकते, वैसे ही यह बताना भी मुश्किल है कि गृहस्थ और संयासी में कौन श्रेष्ठ है। उनके अनुसार, दोनों ही समान रूप से श्रेष्ठ हैं। गृहस्थ जीवन से ही संयासी जीवन की शुरुआत होती है। संत महात्मा भी गृहस्थ से पैदा होते हैं, और बाद में विरक्त होते हैं। उनका पालन पोषण भी गृहस्थों से ही होता है।

प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार, गृहस्थ जीवन हमारी दाहिनी आंख के समान है। गृहस्थ ही संतों को उपदेश देते हैं, और संत ही गृहस्थों को पाप रहित बनाकर भगवान की प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं। संत हमें सत मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

गृहस्थ और संयासी दोनों के महत्व को समझना

प्रेमानंद जी महाराज का मानना था कि गृहस्थ और संयासी दोनों की दृष्टि एक ही है और वह दृष्टि है भगवान। अगर भगवान की प्राप्ति नहीं हुई, तो न तो गृहस्थ, गृहस्थ होते हैं और न ही विरक्त, विरक्त होते हैं। दोनों का स्थान समान है, कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। आप संत को बड़ा मानते हैं, उनका सम्मान करते हैं, वहीं संत आपको बड़ा मानते हैं और वे सब में भगवान को देखते हैं।

गृहस्थ और संत का सम्बन्ध

प्रेमानंद जी कहते हैं कि संत भिक्षा लेकर शिक्षा देते हैं, और गृहस्थ भिक्षा देकर संत की सेवा करते हैं। यह दोनों के बीच बराबरी का नाता है। माया में बंधा हुआ जीव संत की सेवा करता है, जबकि संत अपने ज्ञान के द्वारा गृहस्थ की सेवा करते हैं।

गृहस्थ अन्न और वस्त्र के द्वारा संत की सेवा करता है, और संत भजन, तपस्या, साधना के द्वारा गृहस्थ की सेवा करते हैं। दोनों एक-दूसरे के लिए आवश्यक हैं, जैसे हमारी दो आंखें हैं, लेकिन दृष्टि एक ही है। दोनों का लक्ष्य भगवान की प्राप्ति है, और यही उनका सर्वोत्तम उद्देश्य है।

निष्कर्ष:

गृहस्थ और संयासी जीवन दोनों के महत्व को समझना जरूरी है। प्रेमानंद जी महाराज का यही कहना था कि दोनों जीवन का उद्देश्य एक ही है – भगवान की प्राप्ति। इस तरह, संत और गृहस्थ दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, और एक दूसरे के बिना जीवन अधूरा होता है।

Comments